पढ़िए, महंत अवेद्यनाथ की जिंदगी की पूरी कहानी
गोरक्षनाथ पीठ के महन्त अवेद्यनाथ ब्रह्मलीन हो गए। शुक्रवार की रात गोरक्षनाथ चिकित्सालय में उन्होंने अंतिम सांस ली। वह 95 वर्ष के थे।
महंत अवेद्यनाथ को अपनी मां का नाम याद नहीं रह गया था क्योंकि जब वह बहुत छोटे थे तभी उनके माता पिता की अकाल मृत्यु हो गई थी। वह दादी की गोद में पल रहे थे। उच्चतर माध्यमिक स्तर तक शिक्षा पूर्ण होते ही दादी की भी मृत्यु हो गई । उनका मन इस संसार के प्रति उदासीन होता गया और उसमें वैराग्य का भाव भरता गया। उनके पिता जी तीन भाई थे। वह अपने पिता के एकलौते पुत्र थे। उन्होंने अपनी सम्पत्ति दोनों चाचा को बराबर बांट दिया और वैराग्य ले लिया।
किशोर अवस्था में उन्होंने बद्रीनाथ, केदार नाथ गंगोत्तरी यमुनोत्री आदि तीर्थ स्थलों की यात्रा की, कैलाश मानसरोवर की यात्रा से वापस आते समय अल्मोड़ा में उन्हें हैजा हो गया था। जब वे अचेत हो गए� तो साथी उन्हें उसी दशा में छोड़ कर आगे बढ़ गए। तबीयत ठीक हुई तो महंत जी अमरता के ज्ञान की खोज में भटकने लगे। इसी दौरान उनकी मुलाकात योगी निवृत्तिनाथ जी से हुई और उनके योग, आध्यात्मिक दर्शन तथा नाथ पंथ के विचारों से महंत जी प्रभावित होते चले गए। उस समय अवेद्यनाथ तक सिर्फ ब्रह्मचारी संत थे। नाथ पंथ में अभी दक्ष नहीं थे । योगी निवृत्तिनाथ जी के साथ रह कर ही महंत जी ने तत्कालीन गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना जो योगी निवृत्तिनाथ को चाचा कहते थे। ऐसा इसलिए क्योंकि वह योगी गम्भीरनाथ के शिष्य थे।
महंत दिग्विजनाथ से मुलाकात
1940 में महंत अवेद्यनाथ की महंत दिग्विजयनाथ जी से पहली भेंट हुई। मुलाकात के दूसरे दिन ही दिग्विजयनाथ को बंगाल जाना था तभी उन्होंने� महंत अवेद्यनाथ जी को उत्तराधिकारी घोषित करने की इच्छा जाहिर की लेकिन अवेद्यनाथ तब तक नाथ पंथ के बारे में पूरी तरह समझ नहीं सके थे। इसके बाद वह गम्भीरनाथ जी के शिष्य शान्तिनाथ जी से मिलने कराची चले गये । वहां दो साल तक उन्हें गोरखवाणी के अध्ययन का अवसर मिला।
महंत अवेद्यनाथ को अपनी मां का नाम याद नहीं रह गया था क्योंकि जब वह बहुत छोटे थे तभी उनके माता पिता की अकाल मृत्यु हो गई थी। वह दादी की गोद में पल रहे थे। उच्चतर माध्यमिक स्तर तक शिक्षा पूर्ण होते ही दादी की भी मृत्यु हो गई । उनका मन इस संसार के प्रति उदासीन होता गया और उसमें वैराग्य का भाव भरता गया। उनके पिता जी तीन भाई थे। वह अपने पिता के एकलौते पुत्र थे। उन्होंने अपनी सम्पत्ति दोनों चाचा को बराबर बांट दिया और वैराग्य ले लिया।
किशोर अवस्था में उन्होंने बद्रीनाथ, केदार नाथ गंगोत्तरी यमुनोत्री आदि तीर्थ स्थलों की यात्रा की, कैलाश मानसरोवर की यात्रा से वापस आते समय अल्मोड़ा में उन्हें हैजा हो गया था। जब वे अचेत हो गए� तो साथी उन्हें उसी दशा में छोड़ कर आगे बढ़ गए। तबीयत ठीक हुई तो महंत जी अमरता के ज्ञान की खोज में भटकने लगे। इसी दौरान उनकी मुलाकात योगी निवृत्तिनाथ जी से हुई और उनके योग, आध्यात्मिक दर्शन तथा नाथ पंथ के विचारों से महंत जी प्रभावित होते चले गए। उस समय अवेद्यनाथ तक सिर्फ ब्रह्मचारी संत थे। नाथ पंथ में अभी दक्ष नहीं थे । योगी निवृत्तिनाथ जी के साथ रह कर ही महंत जी ने तत्कालीन गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना जो योगी निवृत्तिनाथ को चाचा कहते थे। ऐसा इसलिए क्योंकि वह योगी गम्भीरनाथ के शिष्य थे।
महंत दिग्विजनाथ से मुलाकात
1940 में महंत अवेद्यनाथ की महंत दिग्विजयनाथ जी से पहली भेंट हुई। मुलाकात के दूसरे दिन ही दिग्विजयनाथ को बंगाल जाना था तभी उन्होंने� महंत अवेद्यनाथ जी को उत्तराधिकारी घोषित करने की इच्छा जाहिर की लेकिन अवेद्यनाथ तब तक नाथ पंथ के बारे में पूरी तरह समझ नहीं सके थे। इसके बाद वह गम्भीरनाथ जी के शिष्य शान्तिनाथ जी से मिलने कराची चले गये । वहां दो साल तक उन्हें गोरखवाणी के अध्ययन का अवसर मिला।
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जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव
8 फरवरी 1942 को गोरक्षपीठाधिश्वर महंत दिग्वजियनाथ ने अवेद्यनाथ को पूरी दीक्षा देकर उन्हें अपना शिष्य और उत्तारिधकारी घोषित किया। अवेद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की पूरी व्यवस्था उठाई।� दिग्विजयनाथ के निर्देशन में वह जल्द ही मंदिर से जुड़े विभिन्न धर्म स्थानों की देखरेख में माहिर हो गए।
1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा का ऐतिहासिक अधिवेशन हुआ जिसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी शामिल हुए। यह काल खंड वह था जब देश के विभाजन की मांग जोर पकड़ रही थी और संप्रदायिक दंगे हो रहे थे। ऐसे में अवेद्यनाथ को गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था संभालने के अलावा खुद को राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित करने का भी अवसर मिला।
1948 में महात्मा गांधी की हत्या हो गई।� सरकार ने हत्या की साजिश में दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार करके जेल में बंद कर दिया। गोरखनाथ मंदिर की चल अचल संपत्ति जब्त कर ली गई। उस दौरान महंत अवेद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गोपनीय तरीके से गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था और महंत दिग्विजयनाथ को बेकसूर साबित करने का प्रयास किया।
राजनीति में महंत अवेद्यनाथ-
1962 में पहली बार मानीराम विधानसभा क्षेत्र से विजयी होकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुंचे और लगातार 1977 तक मानीराम से विजयी होते रहे। 1980 में महंत अवेद्यनाथ ने मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से विचलित होकर राजनीति से सन्यास लेने का ऐलान किया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। इस मंडल में वह एकलौते शख्स थे जिन्होंने पांच बार विधानसभा तथा तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता। यहां तक की ‘जनता लहर’ में भी वह अपराजेय रहे। 1998 में उन्होंने अपने शिष्य आदित्यनाथ को चुनाव लड़ने का निर्देश दिया।
महंत जी और सामाजिक समरसता
1980-81 में मीनाक्षीपुरम और उसके आसपास हुए धर्म परिवर्तनों से महंत अवेद्यनाथ भीतर से हिल गए थे। उन्होंने हिंदू समाज से छुआछूत समाप्त करने के लिए प्रयास करना शुरू दिया।� उनके सामाजिक परिवर्तन की इस आंधी से धर्म परिवर्तन रुक गया।� 18 मार्च 1994 को काशी के डोमराजा सुजीत चौधरी के घर उनकी मां के हाथों का भोजन खाकर उन्होंने छुआछूत की धारणा पर जोरदार चोट किया। पटना के महावीर मंदिर में दलित पुजारी की प्रतिष्ठा का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि किसी मंदिर का पुजारी होने के लिए जाति का होना आवश्यक नहीं है। जाति-पाति से ऊपर उठना होगा।
1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा का ऐतिहासिक अधिवेशन हुआ जिसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी शामिल हुए। यह काल खंड वह था जब देश के विभाजन की मांग जोर पकड़ रही थी और संप्रदायिक दंगे हो रहे थे। ऐसे में अवेद्यनाथ को गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था संभालने के अलावा खुद को राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित करने का भी अवसर मिला।
1948 में महात्मा गांधी की हत्या हो गई।� सरकार ने हत्या की साजिश में दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार करके जेल में बंद कर दिया। गोरखनाथ मंदिर की चल अचल संपत्ति जब्त कर ली गई। उस दौरान महंत अवेद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गोपनीय तरीके से गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था और महंत दिग्विजयनाथ को बेकसूर साबित करने का प्रयास किया।
राजनीति में महंत अवेद्यनाथ-
1962 में पहली बार मानीराम विधानसभा क्षेत्र से विजयी होकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुंचे और लगातार 1977 तक मानीराम से विजयी होते रहे। 1980 में महंत अवेद्यनाथ ने मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से विचलित होकर राजनीति से सन्यास लेने का ऐलान किया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। इस मंडल में वह एकलौते शख्स थे जिन्होंने पांच बार विधानसभा तथा तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता। यहां तक की ‘जनता लहर’ में भी वह अपराजेय रहे। 1998 में उन्होंने अपने शिष्य आदित्यनाथ को चुनाव लड़ने का निर्देश दिया।
महंत जी और सामाजिक समरसता
1980-81 में मीनाक्षीपुरम और उसके आसपास हुए धर्म परिवर्तनों से महंत अवेद्यनाथ भीतर से हिल गए थे। उन्होंने हिंदू समाज से छुआछूत समाप्त करने के लिए प्रयास करना शुरू दिया।� उनके सामाजिक परिवर्तन की इस आंधी से धर्म परिवर्तन रुक गया।� 18 मार्च 1994 को काशी के डोमराजा सुजीत चौधरी के घर उनकी मां के हाथों का भोजन खाकर उन्होंने छुआछूत की धारणा पर जोरदार चोट किया। पटना के महावीर मंदिर में दलित पुजारी की प्रतिष्ठा का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि किसी मंदिर का पुजारी होने के लिए जाति का होना आवश्यक नहीं है। जाति-पाति से ऊपर उठना होगा।
21 जुलाई 1984 को अयोध्या के वाल्मीकि भवन में महंत अवेद्यनाथ को श्रीराम जन्म भूमि मुख्य आंदोलन का अध्यक्ष चुना गया।� महंत जी द्वारा कराए गए जनसंघर्ष के क्रम में पवित्र संकल्प के साथ अयोध्या के सरयू तट से 14 अक्टूबर को एक धर्म यात्रा लखनऊ पहुंची जहां हजरत महल पार्क में लाखों हिंदू जनता ने हिस्सा लिया। आंदोलन को राष्ट्रव्यापी बनाने के लिए 22 सितंबर 1989 को नई दिल्ली के बोर्ड क्लब पर विराट हिंदू सम्मेलन हुआ। इसमें प्रस्ताव पास किया गया कि श्रीराम जन्म भूमि, हिंदुओं की था और रहेगी। भूमि पर मंदिर निर्माण के लिए 9 नवंबर 1989 को शिलन्यास संपन्न होगा। लेकिन गृहमंत्री से वार्ता के बाद यह कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया। सरकार पर दबाव डाला गया कि वह शिलन्यास की अनुमति दें। जगह-जगह राम शीला पूजा का कार्यक्रम किया गया।
जब 1989 में लोकसभा चुनाव चल रहा था तभी चुनाव में राम मंदिर मुद्दे पर संत महात्माओं के प्रतिनिधि के तौर पर महंत जी हिंदू महासभा से चुनाव लड़ रहे थे। उन्होंने कहा कि वह राजनीति से अलग हट चुके थे, लेकिन जब हिंदू समाज के साथ अन्याय होता देख चुनावी समर में उतरना उनकी मजबूरी हो गई। 21 नवंबर 1990 को महंत अवेद्यनाथ ने मंदिर के लिए कहा था कि अब याचना नहीं रण होगा। 27 फरवरी 1991 को उन्होंने और विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल ने गोरखपुर में एक जनसभा को संबोधित किया। 23 अप्रैल 1991 में गोरखपुर संसदीय चुनाव क्षेत्र से अपना पर्चा दाखिल करते समय श्रीराम जन्म भूमि और रोटी को ही अवेद्यनाथ ने अपना मुद्दा बताया। उनके नेतृत्व में कई प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्रियों से मिलता रहा और प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से तीन बार भेट की। 29 जुलाई 1992 को अवेद्यनाथ ने लोकसभा में कहा कि पूर्वाग्रह की वजह से श्रीरामजन्म भूमि मुद्दे का हल नहीं निकल पा रहा है। 30 अक्टूबर 1992 को दिल्ली में पांचवीं बार धर्म संसद का आयोजन किया और प्रधानमंत्री को तीन माह का समय दिया गया। 6 दिसम्बर 1992 को राममंदिर के निर्माण के लिए कारसेवा प्रारंभ करने का निर्णय लिया गया।
शिक्षा और स्वास्थ्य की अलख जगाने वाले
महंत दिग्विजयनाथ ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य और शिक्षा का एक दीप 1932 में जलाया था। महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद की स्थापना हुई थी। एक तरफ स्वामी विवेकानंद अंग्रेजी शिक्षा के पक्षधर थे, दूसरी ओर महंत दिग्विजयनाथ जी इसे राष्ट्र के लिए ठीक नहीं मानते थे। ‘मैकॉले’ की शिक्षा पद्धति के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई और इसी शिक्षा परिषद के अंतर्गत 1949-50 में महाराणा प्रताप महाविद्यालय, गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए समर्पित कर दिया। वर्ष 2005 में जंगल धूसड़ में� महाराणा प्रताप महाविद्यालय तथा 2006 में गोरखपुर के रमदत्तपुर में महाराणा प्रताप महिला महाविद्यालय की स्थापना की। शिक्षा के साथ स्वास्थ्य की सेवा के लिए गुरू गोरक्षनाथ चिकित्सालय की स्थापना हुई।
जब 1989 में लोकसभा चुनाव चल रहा था तभी चुनाव में राम मंदिर मुद्दे पर संत महात्माओं के प्रतिनिधि के तौर पर महंत जी हिंदू महासभा से चुनाव लड़ रहे थे। उन्होंने कहा कि वह राजनीति से अलग हट चुके थे, लेकिन जब हिंदू समाज के साथ अन्याय होता देख चुनावी समर में उतरना उनकी मजबूरी हो गई। 21 नवंबर 1990 को महंत अवेद्यनाथ ने मंदिर के लिए कहा था कि अब याचना नहीं रण होगा। 27 फरवरी 1991 को उन्होंने और विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल ने गोरखपुर में एक जनसभा को संबोधित किया। 23 अप्रैल 1991 में गोरखपुर संसदीय चुनाव क्षेत्र से अपना पर्चा दाखिल करते समय श्रीराम जन्म भूमि और रोटी को ही अवेद्यनाथ ने अपना मुद्दा बताया। उनके नेतृत्व में कई प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्रियों से मिलता रहा और प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से तीन बार भेट की। 29 जुलाई 1992 को अवेद्यनाथ ने लोकसभा में कहा कि पूर्वाग्रह की वजह से श्रीरामजन्म भूमि मुद्दे का हल नहीं निकल पा रहा है। 30 अक्टूबर 1992 को दिल्ली में पांचवीं बार धर्म संसद का आयोजन किया और प्रधानमंत्री को तीन माह का समय दिया गया। 6 दिसम्बर 1992 को राममंदिर के निर्माण के लिए कारसेवा प्रारंभ करने का निर्णय लिया गया।
शिक्षा और स्वास्थ्य की अलख जगाने वाले
महंत दिग्विजयनाथ ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य और शिक्षा का एक दीप 1932 में जलाया था। महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद की स्थापना हुई थी। एक तरफ स्वामी विवेकानंद अंग्रेजी शिक्षा के पक्षधर थे, दूसरी ओर महंत दिग्विजयनाथ जी इसे राष्ट्र के लिए ठीक नहीं मानते थे। ‘मैकॉले’ की शिक्षा पद्धति के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई और इसी शिक्षा परिषद के अंतर्गत 1949-50 में महाराणा प्रताप महाविद्यालय, गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए समर्पित कर दिया। वर्ष 2005 में जंगल धूसड़ में� महाराणा प्रताप महाविद्यालय तथा 2006 में गोरखपुर के रमदत्तपुर में महाराणा प्रताप महिला महाविद्यालय की स्थापना की। शिक्षा के साथ स्वास्थ्य की सेवा के लिए गुरू गोरक्षनाथ चिकित्सालय की स्थापना हुई।